Thursday, 23 October 2008

ये स्कूल है पार्लियामेंट नहीं....

कल मेरा बेटा रोते हुए घर आया...उसे स्कूल में डांट पड़ी थी....क्योकि वो लगभग एक महीने से स्कूल नहीं गया था...ये अलग बात है कि जब उसकी बीमारी की बात टीचर को पता चली तो उन्हे अपनी डांट पर पछतावा हुआ...लेकिन तब तक देर हो चुकी थी मेरे बेटेका कोमल मन मर्माहत हो चुका था...मेरे बेटे ने जब टीचर के डांटने के अंदाज के बारे में मुझे बताया तो एक पल के लिए मैं भी चौंक गया...क्योंकि टीचर ने जिस अंदाज में उसे डांटा था उसने मुझे भी जगा दिया औरमुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या हमारे देश की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथ में है...
अब आप ये सोच रहे होंगे कि स्कूल के एक टीचर की डांट का नेताओं से क्या सरोकार है...तो आपको बता दें कि टीचर ने मेरे बेटे को किस अंदाज मेंडांटा...टीचरने मेरे बेटे को कहा...अगर स्कूल नहीं आना है तो स्कूल से अपना नाम टवा लो...ये स्कूल है कोई पार्लियामेंट नहीं है।मुझे टीचर की इस डांट से अपने जमाने के मास्टर जी की डांट याद आ गई जो स्कूल नहीं आने पर डांट कर कहते थे कि ये स्कूल है कोई धर्मशाला नहीं...कि जब चाहा आ गए और जब चाहा नहीं आए।
शायद मेरे बेटे के स्कूल टीचर काफी हद तक सही हैं क्यों कि जिस तरह से वर्ष 2008 में केवल 32 दिन ही संसद की कार्यवाही चली उससे तो यही लगता है कि सांसदों का जब मन करता है वो मुंह उठाकर कार्यवाही में भाग लेने के लिए आ जाते हैं...और जब उनका मौजमस्ती करने का मन करता हैतो कार्यवाही से मुंह फेर लेते हैं। अगर संसद के रिकॉर्ड की जांच की जाए तो इन 32 दिनों की कार्यवाही में शायद ही किसी ऐसे मुद्दे पर सहमति बनी होगी जो आम लोगों के हित में हो।
अब सवाल ये उठता है कि अगर सांसदों की यही मर्जी है तो क्यों ना संसद को राजनीति का केवल औपचारिक केन्द्र बना दिया जाए जहां केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को आकर सांसद इसकी औपचारिकता पूरी कर दें।इससे कम से कम ये तो होगा कि संसद को चलाने में जो एक साल में 440 करोड़ रुपए का खर्च आता है वो बच जाएगा और इस राशि से देशभर में हर साल कम से कम 440 स्कूल तो खोले जा सकेंगे....जिसमें देश के नौनिहालों को पढ़ाया जा सकेगा या फिर ऐसे बेरोजगारों को पैसे मुहैया कराए जा सकेंगे जो खुद का कोई लघु उद्योग लगाना चाहतेहैं...इससे कम से कम हम लघु उद्योगों के क्षेत्र मेंचीन का मुकाबला तो कर पाएंगे क्योंकि हर साल 440 करोड़ रुपए खर्च करके अभी तक तो संसद में ऐसी कोई योजना तैयार नहीं हो पाई है जो चीन से मुकाबला करने में हमारी मदद कर सके। जिससे अब हालात ऐसे हो गए हैं बाजार तो हमारा है लेकिन मालचीन का बिक रहा है।
अगर हम एक साल के कार्यवाही के खर्च का हिसाब लगाएं तो वर्ष 2008 में एक दिन की कार्यवाही के लिए 13 करोड़ 75 लाख रुपए खर्च किए गए। अब अगर यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव के दो दिनों की कार्यवाही के खर्च का आकलन करें तो ये 27 करोड़ 50लाख रुपए बैठता है। अब जनाब, अगर किसी सज्जन ने कुछ करोड़ रुपए देकर कुछ सांसदों को ख़रीदने की कोशिश की तो उस पर छींटाकशी क्यों की जा रही है। मुझे तो लगता है कि उस सज्जन के ऐसा देशभक्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता है क्यों कि उस महाशय ने कुछ करोड़ देकर इस पूरे मामले पर विराम तो लगा दिया नहीं तो ना जाने संसद की कितनी कार्यवाही इसी तू तू मैं मैं की भेंट चढ़ जाती है और इससे ना जाने देश के आम लोगों की गाढ़ी कमाई के कित नेकरोड़ रुपए बर्बाद हो जाते।
ये तो हमारे लिए गर्व की बात होनी चाहिए कि आज़ादी के बाद देश भर का काम निपटाने के लिए महान नेताओं को संसद की कार्यवाही 150से 160 दिनों तक चलानी पड़ती थी लेकिन आजकल के हाईटेक नेता उससे ज़्यादा कामों को 32दिनों में ही निपटा देते हैं। ये अलग बात है कि इसके लिए एक साल में कम से कम 100 दिनों का प्रावधान रखा गया है।अगर क्रिकेट की भाषा में कहा जाए तो अगर कोई खिलाड़ी 32 गेंदों में शतक जमा देता है तो उसे तो सम्मानित किया ही जाना चाहिए।
वैसे भी आजकल सांसद लोगों पर बहुत सी जिम्मेदारियां भी आ गई है.... तो नहीं होना चाहिए कि कोई आदमी सांसद बन जाए तो उसकी पिछली जिंदगी एकदम से ख़त्म होजाए...आखिरकार उसे अपना और अपने परिवार का पेट भी पालना होता है और आज कल वैसे भी राजनीति के पैसे पर मीडिया की भी बहुत पैनी नज़र लगी हुई है ऐसे में राजनेताओं का पेट तो खाली ही रह जाता है। अगर वर्तमान के संसद की बात करें तो इसमें 125 सांसद ऐसे हैं जिनके ख़िलाफ़ कभी ना कभी आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं.. तो क्या ऐसे सांसद पांच साल तक अपने उस धंधे को बंद कर दें..ये तो उनके साथ सरासर ना इंसाफी होगी...क्यों अगर वो पांच साल बाद वापस अपने पुराने धंधे में लौटें तो हो सकता है कि उस धंधे के बाकि लोग उनसे पांच साल आगे निकल चुके हों। अब ऐसी स्थिति में अगर कोई सांसद संसद में अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाए तो इसमें उसका क्या कसूर।
अब अगर बात की जाए सांसदों के सरकारी बंगलों की तो आपको ये जानकर हैरानी होगी कि इसमें से ज़्यादातर सांसदों के बंगले ऐसे पॉश इलाके में हैं कि अगर उनकी कीमत आंकी जाए तो एक बंगले की कीमत 100 से 150 करोड़ रुपए आएगी। और अगर बात उसके भाड़े की की जाए तो वो अनुमानित तौर पर प्रतिमाह एक लाख से ज़्यादा आएगा। अगर हमये मान लें कि दिल्ली में ऐसे बंगलों की संख्या चार सौ है तो ऐसे में केवल भाड़े के तौर पर सरकारी ख़जाने में ४ करोड़ रुपए प्रतिमाह आएगा। और एक साल में ये रकम 48 करोड़ हो जाएगी।सरकार अगर थोड़ा सा सोच समझ कर कदम उठाए तो संसद के कार्यवाही के दिनों में सांसदों के लिए होटल में एक एक कमरा बुक करवा दे...आखिर उन्हे वहां रहना ही कितने दिनों है। अगर सरकार केवल संसद से ही इतने पैसे बचा ले तो आर्थिक मंदी से जूझ रहे हमारे देश का कुछ तो भला हो ही जाएगा।

<आलेख सुरजीत सिंह का है...सुरजीत पत्रकार हैं और सहारा समय में काम करते हैं...>

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