Sunday 23 November, 2008

तेल से बढ़ता ज्ञान..

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 55 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे पहुंच गई है...फिर भी हम बढ़ी कीमत पर तेल ख़रीद रहे हैं...केन्द्र सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमत का रोना रोकर तेल की कीमत बढ़ा दी थी...पर ऐसी क्या वजह है कि कीमत गिरने के बावजूद हमारी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है...वो तेल की कीमत कम नहीं करने पर अड़ी हुई है।
जैसा कि आपको पता ही है कि जुलाई में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी॥अगर उस कीमत की तुलना आज से की जाए तो तेल की कीमत में क़रीब 60 फीसदी की गिरावट आई है...मैं ये नहीं कहता कि तेल में की गई बढ़ोत्तरी को पूरी तरह से वापस ले लिया जाए...लेकिन 60 फीसदी के अनुपात में उस बढ़ोत्तरी को कम तो किया जा सकता है...
तेल संकट के समय केन्द्र ने पेट्रोल की दर में प्रति लीटर 5 की बढ़ोत्तरी की थी...अगर उस बढ़ोत्तरी को कम किया जाए तो उपभोक्ताओं को प्रति लीटर तीन रूपए कम देने पड़ेंगे। अगर इस फार्मूले को डीज़ल और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों पर भी लागू किया जाए तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। सबसे ज़्यादा फर्क ढ़ुलाई में आ रहे अतिरिक्त खर्चे पर पड़ेगा...जिससे आम जरूरी चीजों की कीमत कम होगी और कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इससे महंगाई और महंगाई दर दोनों में गिरावट आ सकती है।
मनमोहन सरकार ने तेल संकट के समय घड़ियाली आंसू बहाकर आम जनता को अपनी मजबूरी सुना दी...पर जब उसी जनता को थोड़ी रियायत देने का समय आया तो उन्हे पेट्रोलियम कंपनी के हितों की परवाह होने लगी। प्रधानमंत्री ने ये ऐलान कर दिया कि जब तक पेट्रोलियम कंपनियों का घाटा खत्म नहीं हो जाता तब तक तेल की कीमतों में कमी करना मुमकिन नहीं है।
उन्हे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आम आदमी की रसोई में अब केवल ख़ास मौकों पर ही हरी सब्जी का दर्शन हो पात है। इन लोगों की दाल इतनी पतली हो गई है कि उससे पीले पानी का आभास होने लगा है..अब उन्होने पैकेट वाले आटे की बजाए खुला आटा लेना शुरू कर दिया है...वर्षों बाद इस आम आदमी को ये पता चल गया है कि चाय के अलावा उनको दूध की बिलकुल भी जरूरत नहीं है। अगर उनके घर पर कोई मेहमान आ जाए तो उन्हे अपने बेटे का गुल्लक तोड़ना पड़ जाता है। ये आम इंसान पर्व-त्योहार पर अपने लिए नया कपड़ा नहीं ले पा रहा है क्यों कि उसे अब लगने लगा है कि पिछले साल लिया गया उनका कपड़ा अभी बिलकुल नए जैसा है। उसने अपने बच्चों का नाम सरकारी स्कूल में लिखवाने का फ़ैसला कर लिया है क्यों कि उसे लगता है कि प्राईवेट के मुकाबले सरकारी स्कूलों में ज्यादा अच्छी पढ़ाई होती है...अचानक उसे अपनी सेहत का भी ख़्याल आ गया है इसलिए अब वो स्कूटर के बजाए साईकिल से ही ऑफिस जाने लगा है।
शायद ऐसे ही ज्ञान ने एक राजकुमार को गौतम बुद्ध बना दिया था...पर आज के इस दौर में आम इंसान इस ज्ञान को पाकर खुद को अपने परिवार वालों को बुद्धु बना रहा है। भले ही इस ज्ञान के पीछे की वजह लगातार बढ़ रही महंगाई हो...
पर केन्द्र सरकार को इससे क्या मतलब...उसकी निगाहें तो बस आने वाले पर टिकी हुई है और अगर इससे फुर्सत मिल जाए तो उसे इस बात की फिक्र ज़्यादा रहती है कि कैसे बराक ओबामा की कृपा दृष्टि उन पर पड़ जाए

Tuesday 11 November, 2008

मां मर गई

आज मैं आप लोगों से एक इंसान का दर्द बांटना चाहता हूँ ...मेरा एक मित्र है।आज दोपहर में मेरे फोन पर ये संदेश आया कि मेरे मित्र की मां अस्पताल में आईसीयू में भर्ती है।मैं उस वक्त ऑफिस में था ..फिर भी उस मित्र के दर्द का अहसास होते ही मैं अपने आप को ऑफिस में रोक ना सका और पहुंच गया उसअ स्पताल में जहां मेरे मित्र की मां पल-पल, सांस दर सांस मौत से ज़िदगी छीनने की लड़ाई लड़ रही थीं...पर यमराज की ताकत के आगे उनकी एक ना चली...उन्होने उसके सामने अपने घुटने टेक दिए...
लेकिन
धरती के भगवान(डॉक्टर) ने हार नहीं मानी और लगातार यमराज कोचुनौती देते रहे। उनकी कोशिशों को देखकर मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ आई...अगर मैं उस पल अस्पताल से लौट आता तो शायद उस डॉक्टर का स्थान मेरेदिल में एक भगवान का ही होता...पर ऐसा हीं हुआ...थोड़ी ही देर में सूत्रों से पता चला कि मां को बचाने की कोशिश केवल एक तमाशा थी...वो तमाशा जिसके लिए काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं...और इस तमाशे में तमाशबीन बना था मेरा मित्र...जिसके दिल के किसी कोने में उसकी मां अब भी
ज़िंदा
थी।
डॉक्टरों ने मेरे मित्र से इस तमाशे के एवज में एक मोटी रकम वसूल की...जिसे चुकाने के लिए मेरे मित्र को ना जाने किस-किसके आगे हाथ फैलाना पड़ा...डॉक्टरों के बिल पर ज़िंदा उसमां की ख़ातिर मेरे मित्र ने जो कर्ज लिए थे उसे चुकाने के लिए उसे ना जाने कितने महीनों तक बार-बार मरना पड़ेगा। इस दौरान ईलाज के लिए मां कोचढ़ाए गए खून का भी हिसाब-किताब किया जा रहा था। डॉक्टरों ने बताया कि मां को चढ़ाए गए 6यूनिट खून केए वज में मेरे मित्र पर प्रति यूनिट500 रुपए की देनदारी बनती थी। इसके विकल्प के तौर पर डॉक्टर ने 6यूनिट खून दान करने का रास्ता सुझाया। मित्र के परिचितो ने डॉक्टरों की ये फरमाईश पूरी की ।मेरे मित्र को लगा कि चलो कम से कम तीन हज़ार रूपए तो बच गए...पर डॉक्टरों ने दान किए गए इन6 यूनिट खून की जांच के तौर पर 450 रूपए प्रति यूनिट की दर से बिल बना दिया। अब आप ही सोच सकते हैं कि इंसानों का खून कितना सस्ता हो गया...महज़ 50रुपए प्रति यूनिट।
पैसो को अगर दर किनार भी कर दिया जाए तो इस पूरी प्रक्रिया के दौरान बर्बाद हुए वक्त का कौन जिम्मेदार होगा...मेरा मित्र भी विवश था क्यों कि डॉक्टरों नेउसकी मां को बंधक बना लिया था। खैर पैसों के लेन-देन की प्रक्रिया आख़िर कार ख़त्म हुई...पर डॉक्टरों ने कानूनी प्रक्रिया की एक पूरी फेर हिस्तमेरे मित्र के हाथों में थमा दी (मां की मौत एक दुर्घटना की वजह से हुई थी) मेरा मित्र अपनी मां का अंतिम संस्कार अपने परिजनों के बीच पटना में करना चाहता था...इसलिए उसके लिए इस पूरी प्रक्रिया को पूरा करना मजबूरी थी। इस सब के बीच उसे इतनी फुर्सत नहीं मिल पा रही थी कि वो मां की मौत को महसूस कर पाता। वो दुर्घटना की वजहों को अब भी मुझे सुना रहा था और अपनी मां की गलतियों पर खीझ रहा था..उसे लग रहा था कि अगर मां ने गलती नहीं की होती तो उसके साथ ये दुर्घटनान हीं होती...हो सकता है मेरे मित्र को उस वक्त भी ये अहसास नहीं हो पा रहा होगा कि उसकी मां अब हर दुख दर्द से काफी दूर जा चुकी है...अगले कुछ घंटो में उस मां का अंतिम संस्कार भी हो जाएगा....पर मैं अगले कई महीनों तक अपने उस मित्र को मरता हुआ देखूंगा...शायद अब हमें अपना गम मनाने के लिए भी फीस चुकानी पड़ेगी और फिर उसके लिए कानून के रखवालों से इज़ाजत मांगनी पड़ेगी

Saturday 8 November, 2008

बराक ओबामा और प्रतिभा पाटिल

बराक ओबामा और प्रतिभा पाटिल में बस इतना सा फर्क है कि एक को अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी जनवरी में मिलेगी तो दूसरी भारत की वर्तमान राष्ट्रपति है। पर क्या आप ये जानते हैं कि प्रतिभा पाटिल के पति का पूरा नाम क्या है ? वो क्या करते हैं ? उनके कितने बच्चे हैं ? हो सकता है कि आप बहुत जागरुक हों तो इसमें से कुछ सवाल का जवाब आपको पता हो...लेकिन अगर ऐसे ही सवाल बराक हुसैन ओबामा के बारे में किया जाए तो शायद पको ऐसे सारे सवालों के जवाब मालूम हों। आपको तो ओबामा के मां-बाप के साथ-साथ उनके सौतेले मां-बाप और सौतेले भाई-बहनों के बारे में भी पता होगा...ये अलग बात है कि हो सकता है कि खुद ओबामा को भी इस मामले में कुछ बात पता ना हों....
मीडिया ने जितना कवरेज अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का किया उतना तवज्जो तो उसने भारत के राष्ट्रपति चुनाव को भी नहीं दिया था। क्या ये हमारी सदियों तक रही गुलामी मानसिकता को दर्शा रहा है या फिर हमने अमेरिका को सुपर पावर मान लिया है। हो सकता है कि हमें ऐसा भी लगने लगा हो कि शायद अमेरिका के तलवे चाटने से हमें वाफादारी का पट्टा मिल जाए। ओबामा के मंत्रिमंडल और सलाहकारों में किसी भारतीय का नाम आते ही हमारा दिल बल्लियों उछलने लगता है...हमें ऐसा लगने लगता है कि जैसे साक्षात भगवान की हम पर कृपा दृष्टि पड़ गई हो। ओबामा के जीतते ही हम ये कहना नहीं भूले कि हमने उन्हे हनुमान जी की मूर्ति भेंट की थी...और हनुमान जी ने ही उनकी जीत को पक्की कर दी।क्या हम इतने बड़े चापलूस हो गए हैं कि अमेरिका की चापलूसी करने के लिए अपने भगवान को भी उनकी सेवा में लगा देते हैं।
मैं तो ये दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर ओबामा का जन्म भारत में हुआ होता तो वो नगर निगम के पार्षद का चुनाव भी नहीं जीत पाते...यहां के नेता कभी उनके नशाखोरी को मुद्दा बनाते तो कभी उनके माता-पिता के नाजायज संबंध की बात छेड़ देते। यहां पर ओबामा के पास जीत का एक ही मंत्र हो सकता था कि वो खुद को दलित घोषित करके अपने ख़िलाफ़ उठ रही हर आवाज़ पर हरिजन एक्ट के तहत मामला दर्ज करवा देते।
ये तो उनकी खुशकिस्मती है कि वो अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं...नहीं तो आने वाले इन दो महीनों में उनके प्रतिद्वन्दी ना जाने उनका क्या हाल करते। शायद भारत के नेतागण भी इस सच्चाई से रूबरू हो चुके हैं इसलिए वो भी अपने स्तर पर ओबामा को बधाई देने से पीछे नहीं हटना चाहते हैं।