Sunday 12 October, 2008

क्या दंगे चुनाव जीतने के औजार हैं ?

मध्यप्रदेश के दो शहर इंदौर और बुरहानपुर...अगर हम आपसे पूछे की इन दो शहरों में क्या समानता है तो आप कहेंगे की ये दोनों प्रदेश के दो शहर हैं...लेकिन नहीं ज़नाब...एक समानता और है...इन दो शहरों में दंगे हुए हैं...इंदौर में दो महीने पहले दंगे हुए तो बुरहानपुर में आज-कल में....आखिर आज हम इन दो शहरों और दंगों की बात क्यों कर रहे हैं...दरअस्ल मध्यप्रदेश में दिसंबर महीने में चुनाव होने हैं...क्या इन दंगों का संबंध चुनाव से हैं...क्या ये दंगे प्रदेश की मौजूदा सरकार को चुनाव जीताने में मदद कर सकते हैं..क्या दंगे चुनाव जीतने के औज़ार बन गए हैं...

विधानसभा चुनाव नजदीक हों और एक एक कर बीजेपी शासित राज्य के दो शहरों में दंगे हमें ये सोचने को मजबूर कर रहे हैं कि कहीं ये दंगे चुनावी फायदे के लिए तो नहीं करवाए जा रहे हैं....बात सुनने में अटपटी जरुर लग सकती है लेकिन हमें वर्ष 2002 की शुरूआत में गुजरात में हुए दंगों और उसके बाद बीजेपी की जबरदस्त जीत को नहीं नहीं भूलना चाहिए। ये भी कि उन्हीं दंगों के बाद गुजरात में विधानसभा चुनाव होने थे।
मध्यप्रदेश के बड़े शहर इंदौर में जुलाई के दूसरे सप्ताह दंगे हुए। उन दंगों के बाद मध्यप्रदेश के मंत्रियों ने ये कहा कि दंगे किसी दुर्घटना वश हुए थे। लेकिन राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग आयोग के अध्यक्ष मोहम्मद सफी कुरैशी और दूसरे सदस्यों ने दंगा पीड़ितों से बातचीत की और निष्कर्ष निकाला कि दंगा सुनियोजित ढंग से भड़काया गया था...इस दल ने इंदौर के खजराना, सिंधी कालोनी का भी दौरा किया जहां सबसे ज्यादा लोग हिंसा के शिकार हुए थे...इन दंगों में सात लोग मारे गए थे। इन दंगों में जानबूझकर एक खास समुदाय को निशाना बनाकर गोली चलाने के आरोप में तीन पुलिसकर्मियों को काफी दबाव में सस्पेंड भी करना पड़ा था।

उसके बाद जबलपुर में धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई समुदाय को निशाना बनाया गया..और अब निशाने पर है बुरहनापुर...बुरहानपुर में भी ठीक वही हालात दुहराने की कोशिश की जा रही है। अब तक बुरहानपुर में दस लोग मारे जा चुके हैं। हालात काबू में होते नहीं दिख रहे हैं। अगर स्थिति पर जल्द नियंत्रण नहीं पाया जा सका तो कुछ और लोगों की बलि चढ़ सकती है।

दरअसल इन दंगों के पीछे जो लोग होते हैं वे काफी शातिर होते हैं। वे अपनी छोटी-छोटी कार्रवाई से अपने राजनीतिक आकाओं का हित साधते हैं। ये घटनाएं हमें कुछ सोचने को मजबूर करती हैं कि क्या वजह है कि जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आते हैं बीजेपी शासित राज्यों में दंगे भड़कने लगते हैं या अल्पसंख्यकों पर हमले शुरू हो जाते हैं। बीजेपी हमारी धार्मिक भावनाओं का शोषण करती है और हमें ही कुछ लोगों के खिलाफ खड़ी कर देती है। जब इन्हें सत्ता मिलती है तो ये किताबों और संस्थाओं के जरिए नन्हें बच्चों में एक खास समुदाय के खिलाफ ज़हर भरते हैं और फिर शुरू करते हैं राजनीति। सत्ता में आने के बाद इन्हें चुनावी वायदे भी याद नहीं रहते। मध्यप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों के समय बीजेपी बिजली, सड़क और पानी के नाम पर सत्ता में आयी थी। लेकिन साढ़े चार साल तक मध्यप्रदेश के लोगों को न बिजली मिली न पानी। उपर से सड़कों की हालत भी खस्ता ही रही। ऐसे में ये पार्टी लोगों की भावनाओं को भुनाने के लिए क्या करे। लिहाजा उसे भरोसा रहा केवल दंगों और धार्मिक भावनाएं भड़काने पर।
तो क्या वाकई भारतीय राजनीति में दंगे चुनाव जीतने का औजार बन गए हैं...आपको क्या लगता है...?

1 comment:

फ़िरदौस ख़ान said...

बहुत वाजिब सवाल उठाया है आपने...इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय राजनीति में दंगे चुनाव जीतने का औज़ार बन गए हैं...

आपकी पोस्ट से मुतासिर हूं...अपने ब्लॉग में आपके ब्लॉग का लिंक दे रही हूं...